लघुकथा " राहत " (विजय कुमार)

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अमावश की रात थी। चारों ओर अंधेरे का साम्राज्य फैला था। कभी-कभी घोंसलों से पक्षियों की आवाज़ें सन्नाटे को चीरती हुई कानों तक आ जाती थी। लोग अपने अपने घरों में ऐसे दुबके पड़े थे मानो बाहर मौत घूम रही हो। हर पल डर, पता नहीं अब किसकी बारी है। अचानक एक झोपड़ी में आग लगी और देखते ही देखते पूरी बस्ती यूं दहकने लगी मानो एक स्थान पर कई होलिका दहन किये जा रहे हों। बच्चे, जवान, बूढ़े, महिलाएं सभी की चीखें एक साथ निकल रही थीं। चीख़ें सुन कर आसपास के गांव के लोग उस ओर बेतहाशा दौड़े। जब तक लोग वहां पहुंचे, चीख़ें बन्द हो चुकी थीं। आग की लपटें काफ़ी ऊंचाई तक जा रही थीं। लोगों ने आग बुझाने की बहुत कोशिश की। कोई मिट्टी डाल रहा था तो कोई पानी। कोशिशें नाकाम रहीं। लोग चारों ओर घेरा डाल कर सारी रात खड़े रहे। रात यूं ही गुज़र गई। सुबह हो गई। मगर आग अब भी लगी थी। सभी के दिमाग़ के हर कोने से एक ही सवाल टकरा रहा था-- आग किसने लगाई और क्यों लगाई? मगर जवाब सिर्फ़ एक के पास था। थोड़ी देर बाद वो भी वहां उपस्थित हुआ -- हाथ जोड़े, आंखों में घड़ियाली आंसू लिए। यानी समाज सेवक, गरीबों का मसीहा, सबका हमदर्द और भारत माता का सच्चा सपूत। उसके आश्वासनों से लोगों को राहत मिल रही थी और उसके पीछे खड़ी राजनीति अपनी जीत पर मुस्कुरा रही थी।

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