(लघुकथा)...बिरजू एक निर्धन लड़का था। वह अपने विद्यालय में औसत दर्जे का विद्यार्थी था। लेकिन उसमें सृजन क्षमता थी। उसकी कविताएं हृदयस्पर्शी होती थीं। इसी क्षमता से प्रभावित होकर शास्त्री जी ने उसे अपना शिष्य बना लिया था। बिरजू अकसर उनसे अपनी कविताओं की त्रुटियों को ठीक करवाने पहुंच जाता था। शास्त्री जी बड़े ही उत्साह से उसकी कविताओं को सही दिशा दे देते थे। एक दिन उन्होंने बिरजू से कहा , " बिरजू, तुम्हारी कविताएं अच्छी हैं लेकिन इनमें सिर्फ़ प्रकृति, ग़रीबी और शोषण ही होते हैं। अब इनमें प्रेम और दर्शन जैसी चीज़ें भी जोड़ो"।बिरजू ने चुपचाप सुन लिया इस घटना के कई दिनों के बाद वह शास्त्री जी से मिला। हल्की सी मुस्कान के साथ उसने अपनी नई कविता उनकी ओर बढ़ा दिया। वे कविता पढ़ने लगे। बीच बीच में पलकें उठा कर बिरजू को भी देख रहे थे। कविता समाप्त करने के बाद उन्होंने शाबाशी देते हुए पूछा, " बेटे, इससे पहले की कविताओं में दर्शन क्यों ग़ायब था?"क्योंकि जब भूख लगती है तो आंखें सिर्फ़ रोटी के दर्शन करना चाहती हैं। आज मेरा पेट भरा हुआ है। "तुम सही कह रहे हो। रोटी के दर्शन के बाद ही मनुष्य जीवन दर्शन और ब्रह्मदर्शन को समझ पाता है।शास्त्री जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा।